"आखिर बिना सजा के जेल क्यों भुगत रहे हैं वृद्ध कैदी"

"आखिर बिना सजा के जेल क्यों भुगत रहे हैं वृद्ध कैदी"

"आखिर बिना सजा के जेल क्यों भुगत रहे हैं वृद्ध कैदी"

"आखिर बिना सजा के जेल क्यों भुगत रहे हैं वृद्ध कैदी"
क्रांति कुमार पाठक

हमारे लोकतांत्रिक देश के न्यायिक क्षेत्र में आज भी बड़े पैमाने पर सुधार करने की जरूरत है। हमारे लिए लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस ओर कुछ कदम अवश्य बढ़ाएं हैं लेकिन अभी और बहुत कुछ करना है। खासकर न्यायिक क्षेत्र में विचाराधीन कैदियों की अनेक तरह की समस्याएं तो हैं ही, पर उससे भी विकट समस्या वृद्ध या अतिवृद्ध विचाराधीन कैदियों की है। मुसीबत यह है कि कारागार सांख्यिकी में पचास से ज्यादा उम्र के कैदियों की तो गणना की जाती है, मगर सत्तर की उम्र पार कर चुके विचारधाराधीन कैदियों की कोई गिनती नहीं होती।कोरोना महामारी आने के बाद इन कैदियों की समस्याएं और भी जटिल हो गई हैं।
       कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री ने विधानसभा में बताया था कि पूरे उत्तर प्रदेश में 80 की उम्र पार कर चुके 181 कैदी हैं। जेलों में बंद दोषी कैदियों की रिहाई के लिए कानून की कुछ धाराओं के तहत पात्र बंदियों की समय से पहले रिहाई की व्यवस्था है। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 161 में भी सजा कम करने का प्रावधान है। लेकिन यह सिर्फ सजायाफ्ता कैदियों के लिए है। जिनके मुकदमे में फैसला नहीं आया है, वे वृद्ध कैसे जेल में ही अपने अंत का इंतजार करने को मजबूर हैं। इसे मानवीय मूल्यों के आधार पर एक लोकतांत्रिक देश में कहीं से भी सही नहीं ठहराया जा सकता है।
       भारतीय जेलों में सत्तर की उम्र पार कर चुके कैदियों में बुढ़ापे से आने वाली दुर्बलता और स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं पैदा होती हैं। जेलों के जो अस्पताल हैं, वे खुद बीमार होते हैं। जेल अधिकारी भी विचाराधीन कैदियों का इलाज अच्छे संस्थानों से कराने में लापरवाह रहते हैं। समय से इलाज न मिलने पर इन कैदियों की मौत भी हो जाती है, जिसे बीमारी से हुई 'स्वाभाविक मौत' मानकर पल्ला झाड़ लिया जाता है। इसका ताजा उदाहरण फादर स्टेन स्वामी की मौत है। 83 वर्ष के फादर स्टेन स्वामी को 9 अक्टूबर 2020 को गिरफ्तार किया गया। पार्किंसन, रीढ़ की पीड़ा, कोरोना आदि से ग्रस्त होने के बावजूद उनकी जमानत नहीं हुई और समय से जरूरी इलाज के अभाव में 5 जुलाई,2021 को उनकी मृत्यु हो गई।
        इसी मुकदमे में कवि और आंदोलनकारी वरवर राव को 81 वर्ष की उम्र में 17 अक्टूबर, 2018 को गिरफ्तार किया गया।वह गंभीर बीमारियों से ग्रस्त थे। जेल में रहते हुए उन्हें कोरोना हो गया और चक्कर आने लगे।सारी कोशिशों के बावजूद उनकी अभी तक नियमित जमानत नहीं हुई है। मेडिकल बेल पर कुछ दिनों के लिए जरूर छोड़ा गया, लेकिन अब भी वह विचाराधीन कैदी के रूप में जीवन-मरण से संघर्ष कर रहे हैं।
        मशहूर लोगों से इतर मामला अधिक व्यापक और गंभीर है। देश की जेलों में बड़ी संख्या में सत्तर वर्ष से अधिक आयु के आम लोग विचाराधीन कैदी के रूप में बंद हैं। न तो ये चर्चा में होते हैं, न  ही आंकड़ों में। 2019 में भारत की जेलों में 4.70 लाख कैदियों में से 3.28 लाख यानी 70 फीसदी विचाराधीन कैदी थे। इनमें से कितने 70 वर्ष के ऊपर के कैदी थे, यह आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, मगर 50 से अधिक आयु वर्ग वाली गणना से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। 50 से अधिक आयु के लोगों की संख्या 2019 कारागार सांख्यिकी के मुताबिक 13 फीसदी से ज्यादा है।
    मुसीबत तब और बढ़ जाती है, जब पता चलता है कि ये ठीक से अपनी बात अदालत तक पहुंचा भी नहीं सकते। 90 फीसदी विचाराधीन कैदी ग्रैजुएट नहीं हैं, 50 फीसदी ने महज कक्षा 10 तक पढ़ाई की है और 28 फीसदी पूरी तरह से अनपढ़ हैं। क‌ई बार सामने आया है कि इनमें से बहुतों पर आपराधिक षड्यंत्र में लगने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी लगाई जाती है। उच्च न्यायालयों ने क‌ई बार इस धारा के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त की है। इंसान दुनिया के किसी कोने में हो, भारतीय पुलिस उस पर यह धारा बड़े आराम से लगा देती है। अतः आज भी आईपीसी में बहुत ही सुधार की गुंजाइश है। इस ओर अविलंब ध्यान देने की जरूरत है।
       बहरहाल, ऐसे मामलों में यह सवाल भी जुड़ा रहता है कि अगर बाद में मुकदमे में अभियुक्त दोषमुक्त पाया जाता है तो अकारण भोगी हुई यातना की भरपाई कैसे हो? समस्या के समाधान का विकल्प यह भी हो सकता है कि हत्या के मामले को छोड़कर अन्य मामलों में सत्तर पार के विचाराधीन कैदियों को जेल में न डाल कर उन्हें उनके निवास वाले जिले में पाबंद कर दिया जाए। यदि पासपोर्ट हो, तो उसे जब्त किया जा सकता है। कुछ भी हो, जीवन के आखिरी पड़ाव में सत्तर पार के अति वरिष्ठ विचारधाराधीन कैदियों को मानवीय मूल्यों के आधार पर जेल के कष्ट से बचाया जाना चाहिए।