बहुत ही चिंताजनक है हिरासत में मौतें

बहुत ही चिंताजनक है हिरासत में मौतें

बहुत ही चिंताजनक है हिरासत में मौतें
बहुत ही चिंताजनक है हिरासत में मौतें

क्रांति कुमार पाठक / गरीब दर्शन- बीते शनिवार (18 दिसंबर) की रात बिहार के कोशी क्षेत्र का आतंक व बाहुबली पप्पूदेव की हार्टअटैक से मौत हुई है या पुलिस कस्टडी में पीट-पीट कर उसकी हत्या कर दी गई है, इस विषय पर फिलहाल सस्पेंस बना हुआ है जो कि बेहद ही गंभीर जांच का विषय है। क्योंकि जब भी कोई आरोपी गिरफ्तार होकर पुलिस कस्टडी,हाजत या जेल में कैदी के रूप में हो तो जबरन पीटकर हत्या करना बेहद ही गंभीर गुनाह माना जाता है। सभी कैदियों के सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस प्रशासन के जिम्मे होता है। किंतु पप्पुदेव के हार्टअटैक से मौत की खबर आने के बाद जब उसके शव का पोस्टमार्टम किया जा रहा था उसके शरीर पर पिटाई के गंभीर निशान चीख चीखकर कह रहा था कि उसकी मौत संभवतः हार्टअटैक से नहीं बल्कि पुलिसिया पिटाई से हुई है। इस घटना से पूरे उत्तर-पूर्व बिहार में जना-क्रोश है। क्योंकि कोई गुनहगार है या कि नहीं यह न्यायालय तय करता है, फिर सजा मुकर्रर भी न्यायालय ही कर सकता है। ऐसी स्थिति में किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती। 
           

कुख्यात बदमाश पप्पुदेव के चाचा और सहरसा जिला के पूर्व जिलाध्यक्ष शालिग्राम देव ने सहरसा पुलिस महकमे पर संगीन आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से जांच कराने की मांग की है। उन्होंने कहा कि जब पप्पुदेव जरायम की दुनिया छोड़ दी थी और गरीबों की मदद करना शुरू कर दिया था तब सोची समझी साजिश के तहत पप्पुदेव को मौत के घाट उतार दिया गया। पुलिस ने रंजिशन डंडे और इलेक्ट्रिक शॉक लगाकर उसकी निर्ममता से हत्या की है। यह घटना जदयू के चर्चित नेता आरसीपी सिंह की बेटी व सहरसा की पुलिस अधीक्षक लिपि सिंह के नेतृत्व में घटी है। इसकी सीबीआई जांच कराई जानी चाहिए।
             

उल्लेखनीय है कि हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने पुलिस हिरासत में मौत (कस्टोडियन डेथ) के मामलों का जिक्र करते हुए कहा था कि संवैधानिक रक्षा कवच के बावजूद अभी भी पुलिस कस्टडी में शोषण, उत्पीड़न और मौत हो रही है। इसके चलते पुलिस स्टेशनों में ही मानवाधिकार उल्लंघन की आशंका बढ़ जाती है। हमारे देश में कस्टोडियन डेथ हमेशा ही बहस का मुद्दा रहा है और इस बाबत आंकड़े हमेशा से ही डराने वाले रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2017 में पुलिस कस्टडी में कम से कम 100 लोगों की मौत हुई जिनमें से अधिकांश निर्दोष थे। इनमें से 58 तो ऐसे थे जिन्हें गिरफ्तार करने के बाद न्यायालय के समक्ष पेश भी नहीं किया जा सका था। जबकि 42 ऐसे थे जो पुलिस रिमांड या न्यायिक रिमांड पर थे। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ही मुताबिक 2001 से 2018 के बीच पुलिस कस्टडी में कुल 1,727 लोगों की मौत हुई है। जबकि नेशनल कैंपेन अर्गेस्ट टार्चर नामक संस्था ने जून महीने में रिपोर्ट जारी कर बताया था कि केवल 2019 में पुलिस कस्टडी के दौरान ही 1,731 मौतें हुई हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो 2019 में रोजाना करीब पांच लोग पुलिस कस्टडी में मरे। हालांकि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि सभी लोग पुलिस की पिटाई से ही मरते हैं। इनमें से कुछ बीमारी से तो कुछ दूसरे कारणों से भी अपनी जान गंवाते हैं।
               

ऐसे में एक बार फिर से एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि पुलिस कस्टडी में हो रही मौतों पर लगाम क्यों नहीं लग रही है। दरअसल, इसके पीछे दो अहम वजहें हैं। अक्सर ही देखा जाता है कि यातनाओं के मामले में पुलिसकर्मी बच कर निकल जाते हैं। ज्यादा कुछ हुआ तो कुछ दिनों के लिए निलंबित हो जाते हैं और फिर काम पर लौट आते हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2017 में जिन भी कैदियों की मौत हुई, उन मौतों के लिए अब तक एक भी पुलिस अधिकारी को दोषी नहीं ठहराया गया है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा 2001 से 2018 के बीच जिन 1,727 लोगों को मौत का आंकड़ा दिया गया है, उन मामलों में सिर्फ 26 अधिकारी ही दोषी ठहराए जा सके हैं और इनमें से ज्यादातर जमानत पर बाहर हैं। कस्टोडियन डेथ से इतर देखें तो साल 2000 से 2018 के दौरान पुलिस के खिलाफ 2,041 मानवाधिकार उल्लंघन के मामले दर्ज हुए, लेकिन इनमें सिर्फ 344 पुलिसकर्मी ही दोषी साबित हो सके। इस तरह पुलिसकर्मियों के आसानी से बचकर निकल जाने से ही हिरासत में हो रही मौतों पर लगाम नहीं लग पा रही है। वे कैदियों से सच उगलवाने के नाम पर यातना और हिंसा को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
         

  दूसरी वजह यह है कि देश में पुलिस सुधार का अभाव है। बार-बार सरकारी समितियां और न्यायालय पुलिस सुधार की बात करती रही हैं, लेकिन पुलिस सुधार के निर्देशों को हमेशा ही नजर‌अंदाज किया जाता रहा है। पुलिस सुधार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय गिरफ्तारी के दौरान पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के भी निर्देश दे चुका है। इस मामले में 1996 के डीके बसु केस बनाम पश्चिम बंगाल सरकार में सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला एक नजीर है। गिरफ्तारी को लेकर न्यायालय ने 11 सूत्रीय दिशानिर्देश जारी किए थे। कुछ महत्वपूर्ण निर्देशों की बात करें तो इनमें एक यह है कि गिरफ्तार या पूछताछ करने वाले पुलिसकर्मी अपने नाम और पहचान का नेम प्लेट लगा कर रखेंगे। दूसरा, गिरफ्तारी का विवरण रजिस्टर पर दर्ज किया जाएगा जिसमें गिरफ्तारी की तारीख, समय और स्थान का जिक्र होगा। परिवार के किसी सदस्य द्वारा सत्यापित सभी विवरण शामिल होंगे। तीसरा, गिरफ्तारी के समय एक गवाह और गिरफ्तार व्यक्ति के हस्ताक्षर लिए जाएंगे। उसे एक मित्र या रिश्तेदार से बात करने का मौका दिया जाएगा और गिरफ्तार व्यक्ति को उसके अधिकार की सूचना दी जाएगी। लेकिन इन निर्देशों के पालन में अभी भी जबरदस्त कोताही बरती जा रही है।
             

हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि पुलिस सुधार में हो रही देरी की सबसे बड़ी वजह राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और पुलिस विभाग का राजनीतिकरण है। चूंकि पुलिस राज्य का मामला है, ऐसे में राज्य सरकारें अपनी छवि चमकाने के लिए अक्सर ही पुलिस के गुनाहों पर पर्दा डालने की कोशिश करती रहती है। साथ ही राज्य सरकारों पर क‌ई बार पुलिस प्रशासन के दुरुपयोग के आरोप भी लगते रहते हैं। दशकों से पुलिस सुधार के विभिन्न पहलुओं पर सरकारों की खामोशी समस्या को और जटिल बनाती रही है। मुमकिन है कि इन्हीं सब कारणों से राज्य सरकारें पुलिस सुधार के लिए तैयार नहीं होती हैं।

साल दर साल पुलिस कस्टडी में मौतें होने से यह घटना अब सामान्य बात हो गई है। इस मामले में भारतीय पुलिस की छवि कितनी खराब है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विदेश में रह रहे भारत के गुनहगारों का प्रत्यर्पण नहीं हो पाता। क्योंकि भारतीय जेलों और पुलिस हिरासत में यातना जगजाहिर है, जिससे उसे अपनी जान का खतरा बढ़ जाता है। जाहिर है पुलिस की यह शैली न केवल नागरिकों की सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक है, बल्कि विश्व समुदाय में भारत की छवि को भी नुकसान पहुंचा रहा है । इसलिए पुलिस कस्टडी, हाजत और जेलों में कैदियों की होने वाली मौतों की उच्च स्तरीय जांच करा कर दोषी अधिकारियों पर कठोर कार्रवाई होनी चाहिए।