निर्वासित 'राम' की उत्तर प्रदेश चुनाव में वापसी
निर्वासित 'राम' की उत्तर प्रदेश चुनाव में वापसी

निर्वासित 'राम' की उत्तर प्रदेश चुनाव में वापसी
क्रांति कुमार पाठक
गरीब दर्शन - इन दिनों भारत समेत पूरी दुनिया कोरोना महामारी के ओमिक्रोन वैरिएंट की ताजा लहर के चलते युद्ध जैसी स्थिति झेल रही है। भारत में एक तरफ जहां तेजी से कोरोना संक्रमण फैलने लगा है और महामारी की तीसरी लहर ने दस्तक दे दी है, वहीं पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर में विधानसभा चुनाव की भी बिसात बिछ गई है। पिछले दो साल से राष्ट्र कोरोना महामारी की विभीषिका झेल रहा है। इसके अलावा पिछले कुछ वर्षों में किसानी का संकट भी गहरा गया है। हालांकि विवादास्पद कृषि कानूनों को अब निरस्त कर दिया गया है। ऐसी विपरीत सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के बीच पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इनमें से सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर हो रही है, क्योंकि 403 विधानसभा सीटों वाला यह राज्य केंद्र में शासन के दरवाजे भी खोलता है और इसी राज्य के वाराणसी संसदीय क्षेत्र से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सांसद हैं। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव का ट्रेलर माना जा रहा है। इस चुनावी समर में एक तरफ पूर्ण बहुमत के साथ सत्तारूढ़ भाजपा है, तो दूसरी तरफ सपा है, जिसकी विधानसभा में मात्र 47 सीटें हैं। हैरानी की बात है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में इसी पार्टी को 224 सीटें थीं और अखिलेश यादव लोकप्रिय नेता बनकर उभरे थे। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जहां राममंदिर निर्माण को लेकर प्रतिबद्धता जताई, वहीं सामाजिक ताने-बाने को भी काफी बदला। जो पिछड़ा समुदाय सपा बसपा से जुड़ा था, उसका काफी बड़ा धड़ा भाजपा की तरफ उन्मुख हुआ। इस तरह यहां सत्ता और शतरंज की बिसात सज चुकी है और शह और मात का खेल भारी होने लगा है। कहीं साइकिल की सुगबुगाहट है तो कहीं हाथी भी रफ्तार पकड़ रहा है, कहीं दूसरी आंधी प्रियंका गांधी का जयघोष हो रहा है तो कहीं निर्वासित 'राम' की घर वापसी का मंगलाचरण है।इन सभी के बीच योगी आदित्यनाथ के काम भारी होते नजर आ रहे हैं। कोरोना के आपदाकाल में घर लौट आए मजदूर, रोजगार धंधों के दुर्गति के विस्थापन के बिगड़े तमाम प्रबंध, आक्सीजन, जीवन रक्षक दवाओं का अभाव और संकट में खड़े जीवन के लिए भी हारती सरकार फिर कहीं से ललकार की भूमिका में खड़ी नजर आ रही है। सत्ता के गलियारों में शतरंज की बिसात अपने नए रंग में आ रही है। केंद्रीय सत्तासीन दल भाजपा और विपक्ष में कांग्रेस सहित सपा, बसपा आदि के राजनीतिक पंडित अपनी-अपनी गोटियां उत्तर प्रदेश में फिट करने को उतारू हो चले हैं। आपदा के ओमिक्रोन की भयावहता के बावजूद भी वर्तमान समय देश के सबसे बड़े राज्य के विधानसभा चुनाव का राजनीति के बारे में एक कहावत भी प्रचलित है कि 'उत्तर प्रदेश की राजनीतिक बिसात ही केंद्रीय कद का खाका तय करती है। यह अक्षरशः सत्य भी है। लोकसभा चुनावों में भी अमित शाह का उत्तर प्रदेश में चुनावी दांव ही आज उनके और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कद्दावर कल का कारण बना है।राजनीतिक समीकरण कई मायने में उत्तर प्रदेश को अहम मानते हैं। अंधकारमय भविष्य का रेखांकन स्वीकारती देश की सबसे पुरानी पार्टी भी इन दिनों अपनी लाडली प्रियंका गांधी को मैदान में उतारने के पक्ष में नजर आ रही है तो वहीं भाजपा अभी अपने ही कई फायरब्रांड नेताओं के मुखौटों का आकलन करने में जुटी हुई है।किसका कितना कद किसकी कितनी लोकप्रियता? यह तो उत्तर प्रदेश की जनता तय करेगी किंतु इस समय देश में उत्तर प्रदेश को लेकर गहन मंथन-चिंतन का दौर शुरू हो चुका है। आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर और भी कई क्षेत्रों की अपराधग्रस्त सियासत अक्सर धुरंधरों को भी गच्चा दे जाती है। फिर इस समय तो सत्ता का पूरा बिगूल निर्वासित'राम'की अयोध्या वापसी का जश्न भी मना रहा है और उसे भुना भी रहा है। जबकि हालातों का गहराई से अध्ययन किया जाए तो उत्तर प्रदेश के लोग कई मामलों में परेशान और उपेक्षित क्षतियो का विधानसभा में यह कहकर उपहास भी उड़ाया गया कि आक्सीजन की कमी से एक भी मौत नहीं हुई। बहरहाल, हम आगामी चुनावों में सत्ता और विपक्ष की भूमिका को देखें तो पाएंगे कि सब कुछ वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए। चिंता आज भी अपराधी तत्वों की बहुतायत की है और अपराध और अपराधियों की चिंता करें भी तो कैसे ? जब तक राजनीति में आपराधिक छवि वाले नेताओं की तूती बजती रहेगी, तब तक सियासत से स्वच्छता अभियान का कोरा दिखावा ही होगा।देश के हालात ही कुछ इस तरह से बनाए जा रहे हैं, जहां राजनीति का मकसद समाजसेवा नहीं बल्कि अपने अहम की पराकाष्ठा साबित करना हो गया है। कांग्रेस अभी अपने शीर्ष नेतृत्व के आधारहीन राजनीतिक परिपेक्ष्य से उभर नहीं पा रही है, वहीं सपा के पूर्व कार्यकाल की कई नाकामियां उस पर भारी हैं। इसी तरह किसान आंदोलन के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट अब भाजपा से उतने खुश नहीं हैं और पूर्वी क्षेत्र में ओमप्रकाश राजभर ने भाजपा का साथ छोड़ दिया है। बेशक, बड़ी विकास योजनाओं के मामले में योगी आदित्यनाथ सरकार की सफलता मानी जाती है और व्यक्तिगत रूप से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं हैं, लेकिन उनके खिलाफ भी विरोध के स्वर सुने जा सकते हैं।