श्याम कुमार झा संस्कृत विभागाध्यक्ष, महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी
महात्मा गाँधी ने राजनीतिक जीवन की शुरूआत भारतवर्ष में चम्पारण सत्याग्रह से की थी। चम्पारण सत्याग्रह कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं था। इस सत्याग्रह के माध्यम से गाँधी ने उस समय की शक्तिशाली अंग्रेजी सरकार की जनविरोधी और किसान विरोधी नीतियों का पुरजोर विरोध कर पहली बार देश के नेताओं को इस बात का एहसास करवाने का कार्य किया था कि सत्ता चाहे कितनी ही शक्तिशाली या निरंकुश क्यों न हो, जब आम जनता अपनी न्यायोचित समस्याओं को लेकर सड़कों पर उतरती है तो सरकार को उसके सामने झुकना पड़ता है। गांधी ने 18 अप्रैल, 1917 को कोर्ट के आदेश पर न्यायालय में उपस्थित होकर अपना पक्ष रखा और जमानत की राशि भरने से भी इनकार कर दिया। यद्यपि गाँधी को चम्पारण आए हुए तब केवल तीन दिन ही हुए थे, किन्तु उनकी सदिच्छा ने गुलामी की दास्ताँ झेल रहे भारतीय जनमानस को जैसे झकझोर कर रख दिया था। उनके पीछे जनता की फौज खड़ी थी और इसकी आहट न्यायालय के साथ कहीं न कहीं ब्रिटिश प्रशासन के कानों तक भी पहुंच चुकी थी। परिणाम स्वरूप ब्रिटिश शासन को बिना जमानत की राशि चुकाए ही गाँधी को छोड़ना पड़ा। विचारणीय विषय यह है कि गाँधी का चम्पारण आगमन तो अंग्रेजों के उस नील की तिनकठिया खेती जो जबरन करवाई जाती के विरुद्ध था, लेकिन चम्पारण आने के बाद जब उन्होंने यहाँ की बदहाली देखी तो उनका आन्दोलन केवल अंग्रेजों के विरुद्ध न रहकर अशिक्षा और अस्वच्छता के साये में दासता और दमनपूर्ण जीवन जीने वाली आम जनता की जागृति हेतु प्रतिबद्ध हो गया। गाँधी जहाँ भी जाते बिहार की जनता उनकी सदिच्छा को देखते हुए उन पर
सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हों जाती। गुलामी में जीवनयापन करने के कारण तत्कालीन बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी थी, फिर भी विपरीत
परिस्थितियों में भी गाँधी ने कई आश्रमों की स्थापना की और इन आश्रमों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों पर ध्यान देना प्रारम्भ किया। पूर्वी चम्पारण जिले के ढाका के पास स्थित मधुबनी आश्रम इसका उदाहरण है। इस आश्रम के भग्नावशेष देखकर पराधीन भारत में इस आश्रम के सुनहरे सफर की अनुभूति की जा सकती है। यहाँ विनोबा भावे जैसे गाँधी के अनुयायी ने भी लम्बे समय तक रह कर जनचेतना को जागृत करने का कार्य किया था। ऐसे तो यह आश्रम मुख्य रूप से खादी ग्रामोद्योग से संबंधित है, जिसमें सूती और रेशम के वस्त्र तैयार किए जाते थे, लेकिन दुर्भाग्यवश बिहार सरकार की नीतियों के कारण खादी को वैसी पहचान नहीं दिलवायी जा सकी, जिसकी वह हकदार थी। यह आश्रम अभी बदहाली का जीता जागता नमूना है। ढाका के पास बरहरवा लखनसेन में विद्यालय की स्थापना गाँधीजी ने की थी। इस विद्यालय में कस्तूरबा ने स्वयं रहकर वर्षों तक शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी उस क्षेत्र की समस्या के निराकरण में अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वहन किया था। इसकी कथा गांव के बुजुर्गों से आज भी सुनी जा सकती है, लेकिन दुर्भाग्य है कि गाँधी ने चम्पारण को जिस रूप में बनाने संवारने की कोशिश की थी, आज एक सौ वर्ष बाद भी गाँधी का सपना क्या पूरा हो सका है ? ऐसा प्रतीत होता है कि गाँधी आज भी जैसे चम्पारण वासियों से कह रहे हों कि हमारा कार्य अभी भी अधूरा है, जो जन सहयोग के बिना पूरा नहीं हो सकता। चम्पारण के सुदूर ग्रामाञ्चल में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अभी भी बनी हुई है, यद्यपि सरकार के द्वारा सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था को सुदृढ़ किया गया है, तथापि आबादी के घनत्व और जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए स्वास्थ्य सुविधाएं कमतर प्रतीत होती है। सरकार की योजनाएं ठीक तरह से लोगों तक पहुंच सके, इसमें जनप्रतिनिधियों को अत्यधिक हाथ बंटाने की आवश्यकता है। कागज पर लगभग एक सौ प्रतिशत घरों में शौचालय बनाने के लक्ष्य को तो पूरा किया गया है, लेकिन गाँधी ने जिन स्थानों पर विशेष रूप से प्रवास कर स्वच्छता संबंधी कार्यों को अंजाम दिया था, आज उन्हीं स्थानों पर सड़क के दोनों किनारे अस्वच्छता के दृश्यों को देखकर लगता है, गाँधी का सपना अभी अधूरा है। अधूरे सपने के लिए केवल सरकार पर दोष मढ़ना ठीक नहीं। जब तक समाज के शिक्षित लोग आगे आकर इन समस्याओं के समाधान के प्रति अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं करेंगे, तब तक सरकारें आती जाती रहेंगी, समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहेंगी। बिहार में अभी भी कुछ ऐसी दलित बस्तियाँ हैं, जहाँ समाज के संभ्रांत वर्ग जाना पसन्द नहीं करते। यद्यपि सरकारी स्तर पर छुआछूत की समस्या के निराकरण के अनेक प्रयास किए गए है, तथापि व्यावहारिक स्तर पर यह अभी भी अंशतः विद्यमान है। मोतिहारी शहर के मुख्य सड़क के किनारे सरकारी जमीन पर अतिक्रमित कई ऐसी बस्तियाँ देखने को मिलती है, जहाँ अभी भी शिक्षा और स्वच्छता सम्बन्धी गम्भीर समस्याएं बनी हुई है। जब तक हम सम्पूर्ण आबादी को वास्तविक और व्यावहारिक शिक्षा से नहीं जोड़ेंगे, तब तक न तो साक्षरता का हमारा लक्ष्य पूरा होगा और न ही समाज से चोरी व्यभिचार जैसी कुरीतियां समाप्त होगी। यदि समाज के शिक्षित और आर्थिक रूप से संतुलित लोग अपनी दिनचर्या से कुछ समय निकालकर पिछड़ी बस्तियों के उन्नयन के लिए अपना समय दे सकें, तो सरकारी योजनाओं का जहाँ उन्हें सीधा लाभ मिलेगा, वहीं उनके अन्दर जागृति भी आएगी। यद्यपि इस क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा कई अच्छे प्रकल्प किए जा रहे हैं, तथापि समाज से और अधिक सहयोग की आवश्यकता है। शहर के सभी सड़कों पर भिन्न-भिन्न स्थानों पर कूड़ा कचरा जिस तरह से फेंका जाता है, उससे कई संक्रामक बीमारियों के फैलने का खतरा बना रहता है। विशेषकर बरसात के दिनों में कई
जहरीले मच्छर कचरों के ढेरों पर पनपते हैं और उसका असर सीधे आसपास रहने वाले लोगों के जीवन पर पड़ता है। शिक्षा को जब तक हम अपने व्यावहारिक जीवन में न उतारेंगे, तब तक शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकेगा। अतः आवश्यकता है कि ग्राम समिति बनाकर नगर निगम के साथ संवाद कायम कर पूरे नगर की स्वच्छता के लिए सरकारी योजनाओं में अपना सहयोग देने की जिससे मोतिहारी और सम्पूर्ण चम्पारण क्षेत्र स्वच्छता के लिए पूरे देश में जाना जाए सके और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक गाँधी का सपना अधूरा रहेगा।
विवाह आदि कार्यक्रमों में आनंद के लिए लाउडस्पीकर और डीजे के माध्यम से विभिन्न गीतों को बजाना आजकल के सामाजिक चलन का एक अंग है। पहले महिलाएं बिना ध्वनि विस्तारक के गीत गाती थी। आज तकनीकी सहायता से इन गीतों को स्वयमेव या रिकाडेंड गाने बजाने का चलन हमारी संस्कृति का एक हिस्सा हो गया है और यह सामाजिक आनंद के लिए अच्छा भी है, किन्तु साउंड बॉक्स के साउंड का स्तर कितना और कैसा होना चाहिए, इसका ख्याल भी आयोजकों को रखना जरूरी है।आयोजक समाज के ही तो अंग है। अत्यधिक साउंड के कारण हृदय रोग इत्यादि से ग्रसित रोगियों को अत्यन्त कठिनाई होती है। एक ओर जहाँ ध्वनि प्रदूषण से पूरे वातावरण में कंपन पैदा होता है, वहीं बच्चों और वृद्धों को अत्यधिक ध्वनि के कारण जीवन का खतरा भी बना रहता है। अतः इस पर समाज को और अधिक जागरूक और संवेदनशील होने की आवश्यकता है। कृषि कार्य में कीटनाशकों का प्रयोग अत्यधिक उत्पादन के लिए अब एक फैशन का रूप ले रहा है। भोले-भाले किसान दवा विक्रेताओं के चंगुल में फंस रहे हैं। कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री करने का सबसे सहज स्थान भारतवर्ष और विशेषकर बिहार को समझाता है। कीटनाशकों से होने वाले खतरों से किसान अनजान है। अगर अनजान न भी कहे तो उन्हें इतना नहीं पता कि हम कुछ अधिक उत्पादन के चक्कर में लोगों को जहर खिलाने का कार्य कर रहे हैं। यह बात ठीक है कि बिना कीटनाशक के आज किसी भी कृषि संबंधित उत्पाद विशेषकर साग
सब्जी का व्यावसायिक उत्पादन करना मुश्किल है, तथापि उसकी मात्रा नियन्त्रित होनी चाहिए। अन्यथा अभी जितनी बीमारियां है, उसमें से अधिकांश का संबंध कहीं न कहीं हमारे खान-पान में केमिकल के प्रयोग से है। इसलिए ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिएएक जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है, क्योंकि अभी इसका जो भयावह रूप देखने को मिल रहा है, कालान्तर में यह समस्या नियंत्रण से बाहर चली जाएगी। अतः सरकार और समाज दोनों का कर्तव्य है कि समय रहते
रासायनिक खाद और कीटनाशकों के प्रयोग पर एक मानक व्यवस्था बनाये और उस पर अमल करे। गांधी देसी
उत्त्पादों को बढ़ावा देने पर बल देते थे। बीमारी के समाधान के लिए गाँधी अपने जीवन में नेचुरोपैथी का पालन करते थे। उनकी आत्मकथा में पुत्र के तेज बुखार होने के बावजूद मिट्टी के लेप की
चिकित्सा से बुखार को कम करने की बात से हम सभी परिचित हैं। अतः गाँधी के सपनों का चम्पारण यदि हम गढना
चाहते हैं तो पूरे चम्पारण को रसायनिक खाद मुक्त करने का संकल्प लेना होगा। सिक्किम ऐसा पहला राज्य है, जिसने
सम्पूर्ण ऑर्गेनिक खेती को अपनाया है। रसायन रहित खेती कर वहाँ के कृषक अपने उत्पादों को राज्य और उसके बाहर
भी निर्यात कर रहे हैं। हमें खेती के तरीकों में सिक्किम से शिक्षा लेनी चाहिए। गांधी ने बुनियादी विद्यालय कीशुरूआत की थी। बुनियादी विद्यालय में बच्चों को रुचि के हिसाब से सिलाई बुनाई कढ़ाई तथा खेती की शिक्षा दी जाती थी। वहां पढ़ने के साथ-साथ उन्हें ऐसा बनाया जाता कि एक ओर शारीरिक रूप से वे स्वस्थ रहें, वहीं दूसरी ओर पढ़ाई के बाद अपनी रुचि के अनुसार अपना कारोबार प्रारम्भ कर सकें। आज स्किल इंडिया के माध्यम से सरकार उसी कार्य को आगे बढ़ा रही हैं। आवश्यकता है प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में बुनियादी विद्यालय की अवधारणा के समान छात्रों को शिल्प की शिक्षा के साथ जोड़ने की। यह कार्य शिक्षक के द्वारा अकेले संभव नहीं। सरकार के द्वारा उन्हें तकनीकी सहयोग किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए
आवश्यक है कि अभी पढ़ाई के प्रति छात्रों
की रुचि दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। उन्हें भविष्य की भी चिन्ता सताती रहती
है। पढ़ने के बाद वे जीवन में कैसे प्रतिष्ठित होंगे, इसके लिए रूचि के अनुसार शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। जर्मनी में छात्रों के रूचि का सर्वाधिक ख्याल रखा जाता है। जापान से भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। कोरिया जैसे छोटे देश अपनी युवा शक्ति को तकनीकी शिक्षा के साथ जोड़कर उनकी प्रवृत्ति के अनुसार अनुसंधान पर बहुत अधिक कार्य कर रहा है। भारत में मेधा की कमी नहीं है, उसको दिशा देने की आवश्यकता है। गाँधी के बुनियादी विद्यालय के व्यावहारिक सपने को साकार करना अभी भी बाकी है। इस दिशा में सरकार और शिक्षकों को एक साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है। यदि सरकारी सहायता न भी प्राप्त हो तो हम छोटे स्तर पर सामाजिक तथा वैयक्तिक सहयोग से छात्रों में क्रियाशीलता के विकास के लिए कार्यशाला का आयोजन कर सकते हैं और छात्रों के अन्दर की प्रतिभा को निखार सकते हैं। चाहे वह किसी भी स्तर का विद्यालय क्यों न हो, प्राथमिक, माध्यमिक, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर पर हम पाठ्यक्रम के साथ-साथ कुछ न कुछ पाठ्य सहगामी क्रियाओं के माध्यम से छात्रों की आन्तरिक क्षमता को विकसित कर सकते हैं। ऐसा करने पर महात्मा गाँधी की शिक्षा संबंधी अवधारणा निश्चित रूप से साकार हो सकेगी। छात्रों में नशा की प्रवृत्ति दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यह छात्रों को अन्दर से खोखला करता जा रहा है, जिसकी सही जानकारी अभिभावकों और शिक्षकों को भी नहीं है। जैसे व्यक्ति के अन्दर क्या चल रहा है, इसका पता लगाने के लिए हम मनोचिकित्सक के पास जाते हैं, उसी तरह सरकार को शिक्षा में होने वाले व्यय के साथ-साथ छात्रों की प्रवृत्तियों में कोई विकृति न आए जाए इस पर योजना बनाकर ध्यान देना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जैसे पंजाब और हरियाणा में इग्स की समस्या सरकार के नियंत्रण के बाहर चली गई है, उसी तरह गाँधी की कर्मभूमि बिहार प्रदेश में भी यह समस्या नियंत्रण के बाहर चली जाएगी। अतः समय रहते इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। अभिभावकों और शिक्षकों को अपने बच्चों के साथ निरन्तर संवाद कायम रखना होगा। छात्रों के भविष्य में ही शिक्षकों और उनके माता- पिता का भविष्य निहित है। अन्त में इतना कहना चाहूँगा कि चम्पारण को सुन्दर और खुशहाल बनाने का गाँधी का सपना अभी अधूरा है, जिसे पूरा करने का दायित्व हम सभी के कन्धों पर है।